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बालकाण्ड - ४

>> बुधवार, 3 जुलाई 2013

गोस्वामी तुलसीदास

श्री तुलसीदास रचित रामचरितमानस भावार्थ सहित

(भावार्थ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीरामचरिमानस से साभार)

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुन्दर नयनामृत-अञ्जन हैं, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अञ्जन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसार रूपी बन्धन से छुड़ाने वाले रामचरित्र का वर्णन करता हूँ।

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥

पहले पृथ्वी दे देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत-समाज को प्रेमसहित सुन्दर वाणी से प्रणाम करता हूँ।

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत-चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है; कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है, और कपास में गुण अर्थात् तन्तु होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्‌गुणों का भण्डार होता है इसलिए वह गुणमय है।) [जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणित होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढकता है उसी प्रकार] संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढकता है, जिसके कारण उसने जगत् में वन्दनीय यश प्राप्त किया है।

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥

सन्तों का समान आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत् में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संतसमाज रूपी प्रयागराज में) रामभक्ति रूपी गंगा जी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती जी हैं।

बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुना जी हैं और भगवान विष्णु और शंकर जी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणों की देने वाली हैं।

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥

[उस संत समाज रूपी प्रयाग में] अपने धर्म में जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है।

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥

वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देने वाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है।

दोहा- सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥२॥

जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों फल पा जाते हैं।

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