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बालकाण्ड - १३

>> सोमवार, 8 जुलाई 2013

गोस्वामी तुलसीदास

श्री तुलसीदास रचित रामचरितमानस भावार्थ सहित
(भावार्थ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्रीरामचरिमानस से साभार)

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥

इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे

सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥2॥

अब मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर संवत्‌ 1631 में इस कथा का आरंभ करता हूँ।

नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं॥3॥

चैत्र मास की नवमी तिथि मंगलवार को श्री अयोध्याजी में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन श्री रामजी का जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ (श्री अयोध्याजी में) चले आते हैं।

असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥4॥

असुर-नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता सब अयोध्याजी में आकर श्री रघुनाथजी की सेवा करते हैं। बुद्धिमान लोग जन्म का महोत्सव मनाते हैं और श्री रामजी की सुंदर कीर्ति का गान करते हैं।

मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥

सज्जनों के बहुत से समूह उस दिन श्री सरयूजी के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में सुंदर श्याम शरीर श्री रघुनाथजी का ध्यान करके उनके नाम का जप करते हैं।

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥

वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं।

राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥2॥

यह शोभायमान अयोध्यापुरी श्री रामचन्द्रजी के परमधाम की देने वाली है, सब लोकों में प्रसिद्ध है और अत्यन्त पवित्र है। जगत में (अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज) चार खानि (प्रकार) के अनन्त जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजी में शरीर छोड़ते हैं, वे फिर संसार में नहीं आते (जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटकर भगवान के परमधाम में निवास करते हैं)।

सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥3॥

इस अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों की देने वाली और कल्याण की खान समझकर मैंने इस निर्मल कथा का आरंभ किया, जिसके सुनने से काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते हैं।

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥4॥

इसका नाम रामचरित मानस है, जिसके कानों से सुनते ही शांति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए।

रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥5॥

यह रामचरित मानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की। यह तीनों प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों का नाश करने वाला है।

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा।

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥7॥

मैं उसी सुख देने वाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ, हे सज्जनों! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिए।

जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

यह रामचरित मानस जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा मैं श्री उमा-महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ।

संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥

श्री शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के अनुसार तो वह इसे मनोहर ही बनाता है, किन्तु फिर भी हे सज्जनो! सुंदर चित्त से सुनकर इसे आप सुधार लीजिए।

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥2॥

सुंदर (सात्त्वकी) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधु रूपी मेघ) श्री रामजी के सुयश रूपी सुंदर, मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल की वर्षा करते हैं।

लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥3॥

सगुण लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम सुयश रूपी जल की निर्मलता है, जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुंदर शीतलता है।

सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥4॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥5॥

वह (राम सुयश रूपी) जल सत्कर्म रूपी धान के लिए हितकर है और श्री रामजी के भक्तों का तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धि रूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कान रूपी मार्ग से चला और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर सुंदर, रुचिकर, शीतल और सुखदाई हो गया।

सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

इस कथा में बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यन्त सुंदर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुंदर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं।

सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥

सात काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञान रूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्री रघुनाथजी की निर्गुण (प्राकृतिक गुणों से अतीत) और निर्बाध (एकरस) महिमा का जो वर्णन किया जाएगा, वही इस सुंदर जल की अथाह गहराई है।

राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥2॥

श्री रामचन्द्रजी और सीताजी का यश अमृत के समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गई हैं, वही तरंगों का मनोहर विलास है। सुंदर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई पुरइन (कमलिनी) हैं और कविता की युक्तियाँ सुंदर मणि (मोती) उत्पन्न करने वाली सुहावनी सीपियाँ हैं।

छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥3॥

जो सुंदर छन्द, सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलों के समूह सुशोभित हैं। अनुपम अर्थ, ऊँचे भाव और सुंदर भाषा ही पराग (पुष्परज), मकरंद (पुष्परस) और सुगंध हैं।

सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥4॥

सत्कर्मों (पुण्यों) के पुंज भौंरों की सुंदर पंक्तियाँ हैं, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस हैं। कविता की ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकार की मनोहर मछलियाँ हैं।

अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥5॥

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये चारों, ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना, काव्य के नौ रस, जप, तप, योग और वैराग्य के प्रसंग- ये सब इस सरोवर के सुंदर जलचर जीव हैं।

सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥

सुकृती (पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है।

भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥7॥

नाना प्रकार से भक्ति का निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इन्द्रिय निग्रह) लताओं के मण्डप हैं। मन का निग्रह, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल है और श्री हरि के चरणों में प्रेम ही इस ज्ञान रूपी फल का रस है। ऐसा वेदों ने कहा है।

औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥8॥

इस (रामचरित मानस) में और भी जो अनेक प्रसंगों की कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं।

पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥

कथा में जो रोमांच होता है, वही वाटिका, बाग और वन है और जो सुख होता है, वही सुंदर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है, जो प्रेमरूपी जल से सुंदर नेत्रों द्वारा उनको सींचता है।

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